प्रिय पाठकों, आप सभी का स्वागत है। इस लेख के माध्यम से Difference Between Agreement And Contract के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे। इस ब्लॉग में करार (AGREEMENT), वचन, करार के आवश्यक लक्षण, करार के प्रकार, शून्य करार और अवैध करार के बीच अंतर, संविदा (Contract), संविदा के मुख्य तत्त्व, संविदा और करार के बीच अंतर, संविदा के प्रकार, शून्य करार और शून्यकरणीय करार के बीच अंतर, महत्त्वपूर्ण तथ्यो से संबंधित उपबंधो के बारे में step by step सविस्तार से चर्चा करेंगे।

करार (AGREEMENT)
करार (AGREEMENT)– भारतीय संविदा अधिनियम की धारा-2 (ङ) के अनुसार “प्रत्येक वचन या वचनों का समूह से एक-दूसरे का प्रतिफल हो, करार कहलाता है।”
वचन की परिभाषा धारा-2(ख) में दी गई है जिसके अनुसार जब किसी प्रस्थापना का प्रतिग्रहण कर लिया जाता है तो वह वचन बन जाता है। इस प्रकार करार किसी प्रस्ताव तथा उसकी स्वीकृति कहते है जिसके द्वारा दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी विशेष काम को करने या न करने का वायदा करते है।
करार के आवश्यक लक्षण
करार के आवश्यक लक्षण निम्न है –
(1) दो या दो से अधिक पक्ष
(2) पारस्परिक सहमति,
(3) दायित्व उत्पन्न करता,
(4) पारस्परिक संवहन,
(5) पक्षकारों का प्रभावित होना।
करार के प्रकार
करार के प्रकार निम्न है –
(1) एक पक्षीय करार– जब किसी करार में एक पक्षकार की ओर से बचन या प्रतिफल का पालन हो जाता है तथा दूसरे पक्षकार को ही अपने वचन का पालन करना बाकी रहता है तो ऐसे करार की एक पक्षीय करार कहते हैं।
(2) द्विपक्षीय करार– द्विपक्षीय करार में दोनों ही पक्षकारों को अपने-अपने वचन का पालन करना शेष रहता है और प्रत्येक पक्षकार का बचन दूसरे पक्षकार के वचन का प्रतिफल होता है, ऐसे बचनों की पारस्परिक वचन (Reciprocal Promise) भी कहते हैं।
(3) शून्य करार– धारा-2 (छ) के अनुसार, वह करार जो विधितः प्रवर्तनीय न हो, शून्य कहलाता है।
(4) शून्यकरणीय करार– जब कोई करार एक पक्षकार या एक से अधिक पक्षकारों की इच्छा पर विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो, पर दूसरे पक्षकार अथवा पक्षकारों की इच्छा पर प्रवर्तनीय न हो, तो ऐसा करार शून्यकरणीय करार कहलाता है।
(5) निष्पादित करार– निष्पादित करार वह करार है जिसके अन्तर्गत दोनों पक्षकार ने अपने-अपने उत्तरदायित्वों को संविदा करते समय ही पूरा कर दिया है।
(6) निष्पादनीय करार– निषादनीय करार वह करार है जिसमें एक पक्षकार अथवा दोनों पक्षकारों को अपना उत्तरदायित्व भविष्य में पूरा करना होता है।
(7) अप्रवर्तनीय करार– अप्रवर्तनीय करार वे करार होते हैं जो कुछ ऐसे अधिकारों और दायित्वों की सृष्टि करते हैं, जिन्हें राजनियम मान्यता तो देता है, परन्तु कुछ तकनीकी दोषों के कारण वे न्यायालय द्वारा लागू नहीं हो सकते।
(8) अवैध करार– ऐसे करार जो आपराधिक प्रकृति के या नैतिकता के विरुद्ध या लोकनीति के विरुद्ध होते हैं, अवैध करार फहलाते हैं।
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शून्य करार और अवैध करार के बीच अंतर:
संदर्भ | शून्य करार | अवैध करार |
परिभाषा | ऐसा करार जो आरंभ से ही विधि द्वारा शून्य माना गया हो। | ऐसा करार जो कानून द्वारा निषिद्ध (मना) हो और अवैध घोषित हो। |
सभी करार | सभी अवैध करार शून्य होते हैं। | सभी शून्य करार अवैध नहीं होते हैं। |
पक्षकारों की स्थिति | शून्य करार के पक्षकार हमेशा दंड के भागी नहीं होते। | अवैध करार के पक्षकार हमेशा दंड के भागी होते हैं। |
समानांतर व्यवहार | शून्य करार के समानांतर व्यवहार राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय हो सकते हैं। | अवैध करार के समानांतर व्यवहार राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय नहीं होते और व्यर्थ हैं। |
प्रभाव | शून्य करार के शून्य सिद्ध होने पर उसका वैधानिक प्रभाव समाप्त होता है। | अवैध करार आरंभ से ही प्रभावहीन होता है। |
उल्लंघन का परिणाम | पक्षकार पर कानूनी दंड नहीं लगाया जाता, क्योंकि इसमें कानून का उल्लंघन शामिल नहीं होता। | कानून का उल्लंघन होने के कारण पक्षकार पर कानूनी दंड लगाया जा सकता है। |
वैधता का आधार | करार में कानूनी आवश्यक तत्वों की कमी हो तो वह शून्य होता है। | करार कानून के विरुद्ध हो तो वह अवैध होता है। |
संविदा (Contract)
संविदा (Contract)– लैटिन के दो शब्द Con+ together से मिलकर बना है। इसका सामान्य अर्थ दो व्यक्तियों को परस्पर साथ आने से है। अधिनियम की धारा-2 (ज) के अनुसार “वह करार जो विधितः प्रवर्तनीय हो संविदा है।”
संविदा के मुख्य तत्त्व
संविदा के मुख्य तत्त्व -(1) पक्षकारों के मध्य करार होना, (2) ऐसे करार का विधि द्वारा प्रवर्तनीय होना।
संविदा अधिनियम की धारा-10 में उन विशेषताओं का वर्णन किया गया है जो एक संविदा की वैधता के लिए आवश्यक है। धारा-10 के अनुसार, सभी करार संविदा है यदि वे उन पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति से किये जाते है जिनमें सविदा करने की क्षमता है, जो वैधानिक प्रतिफल के लिए तथा वैधानिक उद्देश्य से किये जाते हैं और जो इस अधिनियम के द्वारा ब्यर्थ घोषित नहीं कर दिये गये है। इसके अतिरिक्त यदि भारत में प्रवृत्त किसी विशेष राजनियम द्वारा अनिवार्य हो, तो करार का लिखित, साक्षियों द्वारा प्रमाणित और रजिस्टर्ड होना भी आवश्यक है।
इरः प्रकार धारा-2 (ज) तथा धारा-10 के अनुसार एक वैध संविदा के लिए निम्नलिखित तत्वों का होना आवश्यक है-
(1) करार प्रस्ताव तथा स्वीकृति
(2) पक्षकारों में संबिरा करने की क्षमता
(3) पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति
(4) न्यायोचित प्रतिफल एवं उद्देश्य
(5) करार स्पष्ट रूप से शून्य घोषित न किया गया हो,
(6) करार लिखित, प्रमाणित एवं पंजीकृत होना, यदि किसी विशेष अधिनियम द्वारा अनिवार्य हो।
निम्नलिखित संविदाओं की वैधता के लिए उनका लिखित होना आवश्यक है-
(1) अवधि वर्जित ऋण के भुगतान का करार
(2) बीमा की संविदा
(3) विनियम साध्य विलेख
(4) पंच निर्णय समझौता
(5) तीन वर्ष से अधिक के पद के करार
निम्नलिखित संविदाओं की वैधता के लिए प्रलेखों का लिखित होने के साथ-साथ उनका पंजीयन करना भी अनिवार्य है-
(1) धारा-25 के अन्तर्गत, बिना प्रतिफल की गई सविदा।
(2) सम्मत्ति इस्तान्तरण अधिनियम 1882 के अधीन 100 रु. से अधिक मूल्य की सम्पत्ति की संविदा।
(3) कम्पनी अधिनियम 1956 के अन्तर्गत (अ) पार्षद सीमा नियम, तथा
(ब) पार्षद अन्तर्नियम।
(4) अचल सम्पत्ति की भेंट सम्बन्धी संविदा।
(5) बच्चे को गोद लेने से सम्बन्धित सविदा।
Difference Between Agreement And Contract
संविदा और करार के बीच अंतर निम्नलिखित है-
संदर्भ | संविदा | करार |
परिभाषा | प्रत्येक करार जो विधितः प्रवर्तनीय हो, संविदा कहलाता है। | प्रत्येक वचन और वचनों का समूह जिसमें वचन एक-दूसरे के लिए प्रतिफल होते हैं, करार कहलाता है। |
धारा | संविदा की परिभाषा धारा-2 (ज) में दी गई है। | करार की परिभाषा धारा-2 (ङ) में दी गई है। |
क्षेत्र | संविदा का क्षेत्र सीमित है। | करार का क्षेत्र विस्तृत और व्यापक है। |
वैधता | केवल वैध करार ही संविदा होती है। | करार के अंतर्गत वैधानिक और अवैधानिक दोनों प्रकार के करार आते हैं। |
आधारशिला | संविदा की आधारशिला करार है। | करार की आधारशिला प्रस्ताव और स्वीकृति है। |
विधितः प्रवर्तनीयता | संविदा का विधितः प्रवर्तनीय होना आवश्यक है। | करार में विधितः प्रवर्तनीयता होना आवश्यक नहीं है। |
प्रकृति | संविदा केवल उन्हीं करारों को शामिल करती है जो कानून द्वारा मान्य और लागू किए जा सकते हैं। | करार में वैध और अवैध दोनों प्रकार के वचन सम्मिलित हो सकते हैं। |
संविदा के प्रकार
संविदा के प्रकार निम्नलिखित है-
(1) अभिव्यक्त संविदा- ऐसी संविदा जिसमें शर्तों की घोषणा बोले गये शब्दों द्वारा या लिखित में की जाती हो, अभिव्यक्त संविदा कहलाती है।
(2) विवक्षित संविदा- ऐसी संविदायें, जिसमें शर्तों की घोषणा न तो मौखिक रूप में की गई हो और न ही लिखित रूप में, लेकिन पक्षकारों के आचरण अथवा व्यवहार से जिनका अनुमान किया जाता है, विवक्षित संविदायें कहलाती है।
(3) समाश्रित संविदा– किसी घटना के घटने या न घटने पर किसी कार्य को करने या करने से प्रवरित रहने की संविदा ‘समाश्रित संविदा’ है।
(4) आन्वयिक संविदा– ऐसी संविदायें जिनमें पक्षकारों का आशय संविदा करने का नहीं होता, लेकिन विधि ऐसी सविदाओं का अनुमान करती हो, आन्वयिक संविदायें कहलाती है।
(5) अप्रवर्तनीय संविदा– ऐसी सविदायें, जिन्हें कतिपय तकनीको अथवा पारिभाषिक दोषों के कारण प्रवर्तित नहीं किया जा सकता, अप्रवर्तनीय सविदायें कहलाती है।
(6) अवैध संविदा– जब किसी संविदा का उद्देश्य या प्रतिफल विधि-विरुद्ध होता है तो उसे अवैध संविदा कहा जाता है।
(7) शून्य संविदा– धारा-2 (ज) के अनुसार, जो संविदा विधितः प्रवर्तनीय नहीं रह जाती वह तब शून्य हो जाती है जब वह प्रवर्तनीय नहीं रह जाती।
(8) शून्यकरणीय संविदा– भारा-2 (झ) के अनुसार, वह करार जो उसके पक्षकारों में से एक या अधिक के विकल्प पर तो विधि द्वारा प्रवर्तनीय हो किन्तु अन्य पक्षकार या पक्षकारों के विकल्प पर नहीं, शून्यकरणीय संविदा है।
शून्य करार और शून्यकरणीय करार के बीच अंतर
संदर्भ | शून्य करार | शून्यकरणीय करार |
परिभाषा | जो करार विधितः प्रवर्तनीय नहीं होते, शून्य कहलाते हैं। | जो करार केवल एक पक्षकार की इच्छा पर प्रवर्तनीय होते हैं, शून्यकरणीय कहलाते हैं। |
वैधानिक स्थिति | शून्य करार आरंभ से ही शून्य होता है और अंत तक वैधानिक मान्यता नहीं पाता। | शून्यकरणीय करार आरंभ में वैधानिक होता है, लेकिन किसी पक्षकार द्वारा व्यर्थ किए जाने पर शून्य हो सकता है। |
शुरुआती प्रभाव | यह शुरू से ही शून्य रहता है। | यह आरंभ में वैधानिक और प्रभावी होता है। |
कारण | यह तब शून्य होता है जब: | यह तब शून्यकरणीय होता है जब: |
– करार किसी अवयस्क, अस्वस्थ मस्तिष्क वाले व्यक्ति, या बिना प्रतिफल के किया गया हो। | – करार उत्पीड़न, अनुचित प्रभाव, कपट, या मिथ्यावर्णन द्वारा किया गया हो। | |
– करार गलती से, लोकनीति के विरुद्ध, अनैतिक, या असंभव कार्य से संबंधित हो। | – | |
न्यायालय की मान्यता | न्यायालय द्वारा इन्हें मान्यता नहीं दी जाती। | यह न्यायालय द्वारा तब तक मान्यता प्राप्त करता है, जब तक हानि उठाने वाला पक्षकार इसे व्यर्थ न कर दे। |
पक्षकार की भूमिका | किसी पक्षकार की इच्छा से यह करार प्रवर्तनीय नहीं हो सकता। | हानि उठाने वाले पक्षकार की इच्छा पर इसे व्यर्थ किया जा सकता है। |
राजनियम का प्रभाव | यह करार विधितः प्रवर्तनीय नहीं है और इसका कोई वैधानिक प्रभाव नहीं पड़ता। | इसे हानि उठाने वाले पक्षकार की इच्छा पर राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय बनाया जा सकता है। |
महत्त्वपूर्ण तथ्य
- प्रवर्तन तिथि– संविदा अधिनियम 1 सितम्बर 1872 से लागू हुआ था।
- करार– प्रत्येक वचन या उच्चनों का समूह जो एक दूसरे का प्रतिफल हो, करार कहलाता है। [धारा-2 (ड)]
- शून्य करार– यह करार जो विधितः प्रवर्तनीय न हो, शून्य कहलाता है। (धारा-2 (छ)]
- शून्यकरणीय करार– ऐसा करार जिसका प्रर्वतन किसी एक पक्षकार के विकल्प पर निर्भर करता हो, लेकिन दूसरे पक्षकार के विकल्प स) पर नहीं, शून्यकरणीय करार कहलाता है।
- अवैध करार– ऐसा करार जो आपराधिक प्रकृति के या नैतिकता के विरुद्ध या लोकनीति के विरुद्ध होते हैं अवैध करार कहलाते हैं।
- संविदा– यह करार जो विधितः प्रवर्तनीय हो, संविदा है। [धारा-2 (ज)]
- वचन= प्रस्ताव + स्वीकृति । करार= वचन+ प्रतिफल। संविदा = करार + विधि द्वारा प्रवर्तनीयता ।
- राज्य पर भी संविदा विधि के प्रावधान समान रूप से लागू होंगे, यदि वह एक व्यक्ति के साथ संविदा कर रहा है।
- वैध संविदा के आवश्यक तत्व – (1) करार का होना (2) पक्षकारों का सक्षम होना (3) स्वतन्त्र सम्मति का होना (4) विधिपूर्ण स)
- प्रतिफल एवं उद्देश्य का होना (5) अभिव्यक्तः शून्य घोषित नहीं किया जाना, एवं (6) विशेष विधि द्वारा अनिवार्य हो, तो लिखित एव अनुप्रमाणित होना।
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