प्रिय पाठकों, आप सभी का स्वागत है। इस लेख के माध्यम से COUNTER CLAIM CPC के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे | यह प्रतिवादी (Defendant) द्वारा वादी (Plaintiff) के खिलाफ उसी मुकदमे में किया जाता है। इसे एक प्रकार का क्रॉस-सूट माना जाता है। इस लेख में हम प्रतिदावे का अभिप्राय, प्रतिदावा के आवश्यक तत्व, प्रतिदावा का प्रभाव, मुजरा तथा प्रतिदावा में अन्तर के बारे में step by step सविस्तार से चर्चा करेंगे।

COUNTER CLAIM MEANING
COUNTER CLAIM अभिप्राय – वादी द्वारा दायर किये गये वाद में प्रतिवादी द्वारा लिखित कधन के माध्यम से वादी के विरुद्ध अपना दावा पेश किया जाना प्रतिदावा कहलाता है। इसे केवल उन्हों दावों के सम्बन्ध में किया जा सकता है जिसके लिये प्रतिवादी एक पृथक वाद दाखिल कर सकता है। इस प्रकार प्रतिदावा सारवान रूप से एक प्रति-कार्यवाही है। ORDER 8 RULE 6A-G को इस संहिता में 1976 के संशोधन द्वारा जोड़ा गया है।
लक्ष्मीदास बनाम नानाभाई 1964 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय प्रतिदावा को प्रति-वाद के रूप में मान सकता है। तथा प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत किये गये लिखित कथने को वाद-पत्र मानकर उसके संदर्भ में वादी को लिखित-कथन प्रस्तुत करने का अधिकार दे सकता है और न्यायालय मूल-वाद तथा प्रति-दावा की सुनवाई एक साथ कर सकता है, यदि प्रति-दावा पर्याप्त रूप से स्टाम्पयुक्त है।
प्रतिदावा के आवश्यक तत्व
- 1. प्रतिदावा धन के लिये नहीं बल्कि किसी भी दावे या अधिका का हो सकता है।
- 2. प्रतिदावा का बाद हेतुक प्रतिवादी के लिखित कथन दाखिल करने के समय या लिखित-कथन दाखिल करने की समस्या सीमा समाप्त होने से पहले उत्पन्न हो गया होना चाहिये।
- 3. प्रतिदावा नुकसानी या किसी अन्य प्रकृति का हो सकता है।
- 4. COUNTER CLAIM उस न्यायालय के आर्थिक क्षेत्राधिकार के बाहर का नहीं होना चाहिये।
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प्रतिदावा का प्रभाव
1. प्रतिदावा स्वयं में एक पृथक याद होता है अतः न्यायालय दोनों में ही अपना अन्तिम निर्णय दे सकता है।
2. यह प्रतिवादी की ओर से बाद-पत्र माना जायेगा।
3. वादों को इसके संदर्भ में लिखित कथन पेश करने का अधिकार मिला जाता है।
4. यदि वादी का वाद खारिज का दिया जाय, रोक दिया जाय वापस ले लिया जाय या समझौता कर लिया जाय तब भी प्रतिवादी के पक्ष में डिको पारित की जा सकती है तथा न्यायालय उसका अन्तिम रूप से निस्तारण कर देता है।
COUNTER CLAIM CPC । प्रतिदावा का उद्देश्य
इसका उद्देश्य वाद को बाहुल्यता को रोकना है।
मुजरा (SET-OFF) तथा प्रतिदावा में अन्तर
विशेषताएं | मुजरा (ढाल) | प्रतिदावा (तलवार) |
1. प्रकृति | यह प्रतिवादी की ओर से पेश किया गया एक बचाव है (दाल)। | यह सारवान रूप से एक प्रति-कार्यवाही है (तलवार)। |
2. धनराशि | धनराशि निश्चित होनी चाहिए। | धनराशि अनिश्चित भी हो सकती है। |
3. उत्पत्ति | सामान्यतः एक ही संव्यवहार से उत्पन्न होता है। | भिन्न संव्यवहार से भी उत्पन्न हो सकता है। |
4. परिसीमा अवधि | बादी द्वारा बाद-पत्र प्रस्तुत करने की तिथि से गिनी जाती है। | प्रतिवादी द्वारा लिखित-कथन प्रस्तुत करने की तिथि से गिनी जाती है। |
5. धनराशि तुलना | सामान्यतः धनराशि मूल दावे से कम होती है। | सामान्यतः धनराशि मूल दावे से अधिक होती है। |
प्रतिदावा (Counter Claim) क्या है?
COUNTER CLAIM कब दायर किया जा सकता है?
प्रतिवादी के लिखित कथन (Written Statement) के साथ।
लिखित कथन के बाद भी, बशर्ते यह प्रतिदावा संबंधित परिसीमा अवधि (Limitation Period) के भीतर हो।
क्या COUNTER CLAIM दायर करने के लिए कोई विशेष प्रारूप है?
क्या COUNTER CLAIM का विषय वादी के दावे से अलग हो सकता है?
क्या COUNTER CLAIM सह-प्रतिवादी या किसी तीसरे पक्ष के खिलाफ दायर किया जा सकता है?
क्या COUNTER CLAIM एक अलग मुकदमे के रूप में माना जाता है?
अगर वादी अपना मूल मुकदमा वापस ले लेता है तो क्या होता है?
COUNTER CLAIM दायर करने के लाभ क्या हैं?
प्रतिवादी को अपना दावा दायर करने के लिए अलग से मुकदमा करने की आवश्यकता नहीं होती।
विवादों का प्रभावी और निष्पक्ष निपटारा सुनिश्चित करता है।
COUNTER CLAIM और समायोजन (Set-Off) में क्या अंतर है?
समायोजन (Set-Off): यह एक मौद्रिक बचाव है जिसमें प्रतिवादी वादी के दावे की धनराशि को समायोजित करता है, और यह वादी के दावे से अधिक नहीं हो सकता।
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