प्रिय पाठकों, आप सभी का स्वागत है। इस लेख के माध्यम से Court Receiver In CPC के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे। इस ब्लॉग में हम प्रापक की नियुक्ति, देये पारिश्रमिक, दायित्व तथा उसकी शक्तियों से संबंधित उपबंधो के बारे में step by step सविस्तार से चर्चा करेंगे।

Court Receiver: परिचय
धारा-94 (घ) के अन्तर्गत न्यायालय न्याय के उद्देश्यों का विफल होना निवारित करने के लिए प्रापक की नियुक्ति का आदेश यदि उसे उचित एवं सुविधाजनक प्रतीत हो, पारित कर सकता है। संहिता का आदेश-40 नियम-1 से 5. प्रापक की नियुक्ति, देये पारिश्रमिक, दायित्व तथा उसकी शक्तियों से संबंधित उपबंध करता है। कलेक्टर को भी प्रापक नियुक्त किया जा सकता है (नियम-5)।
court receiver meaning
संहिता में ‘प्रापक‘ शब्द परिभाषित नहीं है। सामान्यतः प्रापक एक ऐसा निष्पक्ष व्यक्ति है जो न्यायालय द्वारा वाद या कार्यवाही की विषय-वस्तु के संरक्षण तथा देख-भाल के लिए वाद या कार्यवाही के लम्बन् के दौरान नियुक्त किया जाता है। यह न्यायिक अभिरक्षक (Custodia logis) फहलाता है। प्रापक न्यायालय के निर्देशाधीन अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए आबद्ध होता है।
Court Receiver की नियुक्ति
- प्रापक की नियुक्ति (नियम-1): प्रापक की नियुक्ति एक कठोर उपचार है। यह एक संरक्षणात्मक उपचार है।
- प्रापक की नियुक्ति बहुत शीघ्रता में नहीं की जानी चाहिए। अत्यान्त आवश्यक होने पर ही यह औचित्यपूर्ण होगा। जब तक वादी कम से कम, प्रथम दृष्ट्या, यह सिद्ध नहीं कर देता कि उसके सफल होने के उत्तम आसार है तब तक प्रापक नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए।
- नियुक्ति नियम-1 (क) के अनुसार जहाँ न्यायालय को उचित एवं सुविधाजनक प्रतीत होता है. वहाँ न्यायालय
आज्ञप्ति के पूर्व या पश्चात प्रापक नियुक्त कर सकता है।
- प्रापक की नियुक्ति एक कठोर, वैवेकीय तथा संरक्षणात्मक उपचार है; अतः न्यायालय को अपने विवेक का प्रयोग बुद्धिमत्ता पूर्वक तथा न्यायिकत करना चाहिए। केवल इस आधार पर प्रापक नियुक्त नहीं किया जा सकता कि उसकी नियुक्ति से कोई हानि नहीं होगी। मामालयतः वहाँ प्रापक नहीं नियुक्त किया जाना चाहिए, जहाँ प्रतिवादी विषय-वस्तु पर ताध्यिक कब्जा रखता है। ऐसी सम्पत्ति या विषय वस्तु, जो किसी की पश्च के उपभोग में न हो (property in Media) के संबंध में दोनों पक्षों के हित में प्रायक नियुक्त किया जा सकता है। जहाँ आवेदक अस्वच्छ हाथों से आया हो या वह विलम्ब का दोषी हो वहाँ यह साम्यिक् उपचार इन्कार किया जा सकता है।
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Court Receiver का पारिश्रमिक
- पारिश्रमिक (नियम-2): न्यायालय विशेष या सामान्य आदेश द्वारा प्रापक को सेवाओं के लिए पारिश्रमिक नियत कर सकता है। प्रापक स्वयं अपनी ओर से पारिश्रमिक का निवेदन तो कर सकता है, किन्तु वह किसी विशेष पारिश्रमिक का दावा नहीं कर सकता। प्रापक की सेवाओं तथा उसके उत्तरदायित्व पर विचार करते हुए न्यायालय समुचित पारिश्रमिक लियंत करेगा।
Court Receiver के कर्तव्य
- प्रापक के कर्तव्य (नियम ३) प्रापक के निम्नलिखित कर्तव्य होगें-
- सम्पत्ति से की गई प्राप्तियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने न्यायालय द्वारा अपेक्षा किये जाने पर प्रत्याभूति प्रस्तुत करनी होगी (नियम-3 (ঘ))।
- न्यायालय के निर्देशानुसार अपेक्षित एवं प्रारूप में लेखा प्रस्तुत करना होगा (नियम-3 (ख))।
- न्यायालय के निर्देशानुसार स्वयं से शोध्य धन का भुगतान करना होगा (नियम-3(ग))।
- प्रापक अपनी लापवरवाही ही या चूक के कारण हुई क्षति के लिए उत्तरदायी होने का कर्तव्य रखता है (नियम-3 (घ))।
- बालाजी बनाम रामचन्द, 1985, बाम्बे के वाद में यह धारित किया गया कि प्रापक न्यायालय का प्रतिनिधित्व करता है। वह व्यक्तिगत रूप से कर्तव्य के निर्वहन के लिए आबद्ध है। वह अपने कर्तव्य का प्रत्यायोजन नहीं कर सकता।
प्रापक के कर्तव्यों का प्रवर्तन
प्रापक के कर्तव्यों का प्रवर्तन (नियम-4)
- जहाँ कोई प्रापक हिसाब या लेखा प्रस्तुत करने में विफल रहता है या स्वयं से शोध्य धन का भुगतान करने में विफल रहता है या स्वयं अपनी उपेक्षा या चूक के कारण क्षतिकारित करता है, वहाँ न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि प्रापक की सम्पत्ति कुर्क कर ली जाय तथा उसे बेचकर क्षति की भरपाई की जाए।
प्रापक को शक्तियाँ
- प्रापक को शक्तियाँ (नियम-1(1) (घ)) प्रापक न्यायालय का अधिकारी या प्रतिनिधि है। वह न्यायालयों के निर्देशाधीन कार्य करता है। न्यायालय उस पर निम्नलिखित दायित्व एवं शक्तियाँ अधिरोपित कर सकता है-
- वाद प्रस्तुत करना तथा उसमें प्रतिरक्षा करना।
- सम्पत्ति का प्रबंधन, संरक्षण, परिरक्षण व सुधार करने की शक्ति।
- भ्राटक तथा लाभों के एकत्रीकरण, अनुप्रयोग तथा निस्तारण की शक्ति।
- दस्तावेज निष्पादित करने को शक्ति।
- अन्य कोई शक्ति जो न्यायालय अनुदत्त करना उचित समझे।
प्रापक की शक्तियों पर सीमायें
- प्रापक की शक्तियों पर सीमायें प्रापक केवल उन्हों शक्तियों का प्रयोग कर सकता है, जो उन्हें प्रदान की गई है। न्यायालय उसको शक्तियों में कमी या वृद्धि कर सकता है। सभी महत्त्वपूर्ण विषयों पर प्रापक को ट्यायालय से निर्देश प्राप्त करना चाहिए।
- न्यायालय की अनुमति के बिना न तो प्रापक वाद ला सकता है और न ही उसके विरुद्ध वाद लाया जा सकता है। न्यायालय द्वारा अनुमति दिया जाना एक सामान्य नियम है। अनुमति के बिना प्रस्तुत किया गया वाद निरस्त किये जाने योग्य है। ऐसे वाद में पारित आज्ञप्ति अपास्त को जा सकती है।
- एवरेस्ट कोल क. ब. बिहार राज्य, 1977 S.C. के वाद में यह कहा गया कि प्रापक न्यायिक अभिरक्षक है। उसके कब्जे में बाधा या हस्तक्षेप न्यायिक कार्यवाही में हस्तक्षेप होगा। हस्तक्षेपकर्ता न्यायालय की अवमानना का दायी होगा।
- कन्हैया लाल ब. ग. बनर्जी, 1958, S.C ने कहा कि प्रापक के हाथों में स्थित संपत्ति न्यायालय की पूर्वानुमति के बिना कुर्क नहीं की जा सकती। AMMAL VS. RAMAMURI में यह धारित किया गया कि यदि प्रापक किसी अपराध का दोषी है तथा उसने ऐसा अपराध अपने अधिकार के दुरुपयोग में किया हो. तो उसे अभियोजित किया जा सकेगा। ऐसे अभियोजन के लिए न्यायालय की अनुमति आवश्यक न होगी।
प्रापक के रूप में कलेक्टर की नियुक्ति
- प्रापक के रूप में कलेक्टर की नियुक्ति (नियम 5) कलेक्टर की सम्मति से उसे निम्नलिखित सम्पत्तियों का प्रापकनियुक्त किया जा सकता है
- शास्त को राजस्व चुकाने वाली सम्पत्तिः तथा
- ऐसी सम्पत्ति जिसका राजस्व स्थानांतरित कर दिया गया हो।
- कलेक्टर को प्रापक तभी नियुक्त किया जायेगा, जबकि न्यायालय की राय में उसकी नियुक्ति बेहतर होगी।
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