Protection in respect of conviction for offences

प्रिय पाठकों, आप सभी का स्वागत है। इस लेख में हम Protection in respect of conviction for offences के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे। हम आपको भारतीय संविधान के एक बहुत ही जरुरी आर्टिकल के बारे में आपको बताएंगे,आप सभी जानते होंगे कि कानून हमेशा देश की जनता को किसी भी प्रकार के अपराध से बचाने के लिए लागू किए जाते है। लेकिन कुछ ऐसे कानून भी है जिनको किसी अपराध के आरोपी व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए बनाया गया है।

जी हाँ, इसी विषय पर आज हम आपको विस्तार से बताने वाले है कि कैसे आरोपी (Accused) व्यक्ति भी अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते है। अनुच्छेद 20 क्या है? , अनुच्छेद 20 के मुख्य प्रावधान, इसके अधिकार तथा महत्व क्या है? कैसे आरोपी (Accused) व्यक्ति भी अपनी सुरक्षा के लिए बनाए गए अधिकारों का इस्तेमाल कर सकते है। आज हम step by step Protection in respect of conviction for offences के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे | 

Protection in respect of conviction for offences

अनुच्छेद (आर्टिकल) 20 क्या है– Article 20 in Hindi

अनुच्छेद 20 भारतीय संविधान (Indian Constitution) के भाग III में निहित मौलिक अधिकारों में से एक है। यह उन व्यक्तियों के लिए एक ढाल (Shield) के रूप में कार्य करता है जिन पर अपराध करने का आरोप (Blame) है। इसके द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि उनके साथ किसी के भी द्वारा मनमाना और अन्यायपूर्ण (Unfair) व्यवहार ना किया जा सके। Article 20 मुख्य रूप से सरकार को अपनी शक्ति का लाभ उठाने और जांच व परीक्षण प्रक्रिया के दौरान अभियुक्तों (Accused) के अधिकारों का उल्लंघन करने से रोकने से संबंधित है।

अनुच्छेद 20 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण से संबंधित प्रावधान अनुच्छेद 20 में है जो इस प्रकार है-

1 कार्योत्तर विधियों से संरक्षण ( Protection From Ex-post Facto Law)

2. दोहरे दंड से संरक्षण (Protection From Double Jeopardy)

3. आत्म अभिशंसन से संरक्षण  (Protection From Self Incrimination)

कार्योत्तर विधियों से संरक्षण ( Protection From Ex-post Facto Law)

कार्योत्तर विधियों से संरक्षण ( Protection From Ex-post Facto Law)- अनुच्छेद 20 के खंड (1) के अनुसार कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय,जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भाग नहीं होगा जो उस अपराध के लिए जाने के समय  प्रवृत विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती है।  

अनुच्छेद 20 (1) विधानमंडल की विधायी  शक्ति को नियंत्रित करता है। यह विधानमंडल को भूतलक्षी प्रभाव से (1) अपराध सृजित करने वाली, या (2) दंड में वृद्धि करने वाली विधि बनाने से रोकता है।

अपराध सृजित करने वाली या दंड में वृद्धि करने वाली कार्योत्तर विधि भूतलक्षी प्रभाव से लागू नहीं की जा सकती है, किंतु लाभकारी कार्योत्तर विधि भूतलक्षी प्रभाव से लागू की जा सकती है।

रतनलाल बनाम पंजाब राज्य (A.I.R 1965 S.C 444) के मामले में एक 16 वर्षीय लड़के पर घर में अनधिकार प्रवेश करके 7 वर्षीय बालिका का शील भंग करने का अभियोग चलाया गया। अधीनस्थ न्यायालय द्वारा उसे 6 माह के कठोर कारावास की सजा दी गई और जुर्माना भी पारित किया गया अपील के दौरान संसद में प्रोबेशन आफ ऑफेंडर्स एक्ट 1958 पारित किया गया जिसके अंतर्गत 21 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को कारावास ना देने का प्रावधान था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अभियुक्त इस अधिनियम का लाभ उठा सकता है और उसकी सजा को कम कर दिया गया।

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अनुच्छेद 20 का दूसरा प्रावधान “दोहरे दंड़ से सुरक्षा” क्या है?

दोहरे दंड से संरक्षण (Protection From Double Jeopardy)

दोहरे दंड से संरक्षण (Protection From Double Jeopardy)- अनुच्छेद 20 के खंड 2 के अनुसार कोई व्यक्ति एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा यह आंग्ल विधि के सिद्धांत nemo debate bias vexary पर आधारित है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 20 (2) के संरक्षण के लिए निम्नलिखित तीन आवश्यक शर्तें हैं-

1. व्यक्ति का अभियुक्त होना आवश्यक है।

2. अभियोजन या कार्रवाई किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण के समक्ष हुई हो और यह न्यायिक प्रवृत्ति भी रही।

3. अभियोजन किसी विधि विहित अपराध के संबंध में हो जिसके लिए दंड की व्यवस्था हो।

मकबूल हसन बनाम मुंबई राज्य (A.I.R 1953 S.C 325) के मामले में अपीलार्थी तस्करी करके कुछ सोना ले जाने पर कस्टम अधिकारियों ने सी कस्टम एक्ट के अंतर्गत उनका सोना जप्त कर लिया और बाद में उसे फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट के अंतर्गत बिना अनुमति भारत में सोना ले आने के अपराध के लिए अभियोजित भी किया गया। अपीलार्थी ने उसे इस अपराध के लिए इस आधार पर अभियोजन मानकर आपत्ति की, की कस्टम अधिकारियों द्वारा उनका सोना जप्त करके उसको अभियोजित और दंडित किया गया था।

उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि कस्टम अधिकारी न्यायालय अधिकरण नहीं था। इसलिए फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट के तहत उसका अभियोजन वर्जित नहीं था।

अनुच्छेद 20 (2)  एवं दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 300

अनुच्छेद 20 (2)  एवं दंड प्रक्रिया संहिता की CrPC Section 300 के अनुसार एक बार दोषसिद्ध या दोषमुक्त किए गए व्यक्ति का उसी अपराध के लिए विचारण नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 20 (2) के अंतर्गत अभियोजित और दंडित शब्द का प्रयोग किया गया है ऐसा व्यक्ति जिसे अभियोजित तो किया गया था किंतु दंडित नहीं किया गया था, वह अनुच्छेद 20 (2)  का लाभ नहीं ले सकता। जबकि धारा 300 के अंतर्गत दोषसिद्ध या दोषमुक्त शब्द का प्रयोग किया गया है।

विवाद्यक विबंध (Issue Estoppel)

विवाद्यक विबंध (Issue Estoppel)-रविंद्र सिंह बनाम सुखबीर सिंह (A.I.R 2013 S.C 1048) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि विवाद्यक विबंध का नियम उस बिंदु पर पुनः वाद  करने से रोकता है जो पक्षकारों के बीच अपराधिक विचारण में तय हो चुका है। यह सिद्धांत वहां लागू होता है जहां सक्षम न्यायालय द्वारा विवादित बिंदु का विचारण करके अभिव्यक्ति के पक्ष में निष्कर्ष दिया गया हो जो की अभियोजन के विरुद्ध विबंध या प्राकन्याय रूप में लागू होता हो।

Article 20 व्यक्तियों को आत्म-दोषारोपण से कैसे बचाता है?

आत्म अभिशंसन से संरक्षण  (Protection From Self Incrimination)

आत्म अभिशंसन से संरक्षण  (Protection From Self Incrimination)- अनुच्छेद 20 (3) उपबंधित करता है कि किसी भी व्यक्ति को जो किसी अपराध का अभियुक्त हो, स्वयं अपने विरुद्ध एक गवाह बनने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 20 (3) की आवश्यक शर्तें

अनुच्छेद 20 (3) के संरक्षण के लिए निम्नलिखित तीन आवश्यक शर्तें हैं-

1. व्यक्ति का अभियुक्त होना आवश्यक है।

2. उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देना हो।

3. उसे अपने ही विरुद्ध साक्षी देने के लिए बाधित किया जाए।

अनुच्छेद20 (3) का संरक्षण केवलअभियुक्त व्यक्ति को प्राप्त है इस अनुच्छेद का संरक्षण साक्षी को प्राप्त नहीं है।

अभियुक्त व्यक्ति वह है जिसके विरुद्ध अपराध का औपचारिक दोषारोपण किया गया है दांडिक अवमानना दांडिक कार्यवाही नहीं है साक्षी होना में निम्नलिखित शामिल है-

1. मौखिक, दस्तावेजी तथा अभिसाक्ष्यिक साक्ष्य प्रस्तुत करना तथा 

2. पूर्व में प्राप्त किया गया ऐसा बाध्यकारी अभिसाक्ष्य जो अभियोजन का समर्थन करता है।

आत्म अभिशंसी संस्सविकृति से तात्पर्य सूचना दाता के व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित सूचना से हैं।

Landmark Judgements on Article 20 of the Indian Constitution

मुंबई राज्य बनाम काथू कालू (A.I.R 1961 S.C 1808) के मामले में उच्चतम न्यायालय में कहा कि गवाह बनाने का अर्थ है साक्ष्य प्रस्तुत करना। जो भी विवादास्पद विषय पर कुछ प्रकाश डालता हो उसमें अभियुक्त का ऐसा बयान शामिल नहीं है जो व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति अपने अंगूठे का निशान या हस्ताक्षर का नमूना देता है तो वह कोई व्यक्तिगत साक्ष्य नहीं देता है। क्योंकि यह वस्तु केवल तुलना के उद्देश्य के लिए ली जाती है।

इसी तरह खोज के परिणाम स्वरुप जप्त की गई चीज या अभियुक्त का चित्र, उंगलियों के निशान एवं नमूने के हस्ताक्षर अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत वर्जित नहीं होंगे। अनुच्छेद 20 (3) अपने विरुद्ध लगाए गए अभियोग के संबंध में केवल व्यैक्तिक ज्ञान से कुछ कहने के लिए बाध्य करने को वर्जित करता है।

पुलिस अभिरक्षा में रहने के दौरान पुलिस अभियुक्त द्वारा दी गई ऐसी सूचना जिसके आधार पर साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अर्थों में किसी तथ्य का पता चलता हो, सुसंगत एवं ग्राह्य होगी ऐसी सूचना अनुच्छेद 20 (3) के प्रतिकूल न होगी।

अनुच्छेद 20 (3) अभियुक्त को उसके विरुद्ध लगाए गए अभियोग के संबंध में अपने व्यक्तिगत ज्ञान से कुछ कहने के लिए बाध्य करता है। नंदनी सत्पथी  बनाम P L धनी (A.I.R 1978 S.C 1025) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यह संरक्षण केवल न्यायालय में ही नहीं बल्कि उस समय भी प्राप्त होता है जब पुलिस अभियुक्त से दंड प्रक्रिया की धारा 161  (2) के अधीन पुलिस अभियुक्त से पूछताछ करती है।

पुलिस अधिकारी द्वारा उसे पूछे गए सामान्य प्रश्नों से ही किसी दबाव का गठन नहीं होता है। किंतु उन प्रश्नों की प्रकृति में अपने विरुद्ध साक्ष्य देने का तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है तो अभियुक्त को अनुच्छेद 20 (3)  का संरक्षण प्राप्त होगा और वह उसका उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। दबाव पूर्ण साक्ष्य के अंतर्गत न केवल शारीरिक यंत्रणा देने वाले तथ्य आते हैं बल्कि मानसिक यंत्रणा जैसे वातावरण के दबाव तथा थकने वाले प्रश्न तथा अन्य धमकी पूर्ण साक्ष्य भी आते हैं।

सैलवी बनाम कर्नाटक राज्य (A.I.R 2010 S.C 1974) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि वैज्ञानिक परीक्षण के तरीके अनुच्छेद 20 के अधीन आत्म अभिसंशन है अतः वर्जित है न्यायालय ने कहा कि नार्को विश्लेषण अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार है और इसलिए अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है।

न्यायालय के निर्णय के मुख्य बिंदु इस प्रकार है-

1. अभियुक्त की सहमति के बिना कोई भी लाई डिटेक्टर नहीं प्रयोग किया जाएगा।

2. यदि अभियुक्त इसकी सहमति देता है तो उसे अधिवक्ता की सहायता दी जाएगी और लाई डिटेक्टर के शारीरिक, मानसिक और विधिक आशय को पुलिस और अधिवक्ता को पुलिस को बताना होगा।

3. उसकी सहमति मजिस्ट्रेट के समक्ष लिखी जाएगी।

4. मजिस्ट्रेट के समक्ष सुनवाई के दौरान अभियुक्त को अधिवक्ता का प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाएगा।

5. अभियुक्त से सूचना प्राप्ति की पूरी मेडिकल और तथ्यात्मक वर्णन की पूरी रिपोर्ट लिखी जाएगी।

6. सुनवाई के दौरान व्यक्ति को स्पष्ट रूप से बताया जाएगा कि उसका कथन स्वीकारोक्ति नहीं होगा बल्कि पुलिस के समक्ष दिया गया कथन होगा।

निष्कर्ष : Protection in respect of conviction for offences

संविधान का अनुच्छेद 20 आरोपियों के अधिकारों की रक्षा करता है तथा उन्हें कानूनी प्रक्रिया के समय अपराधों से भी बचाता है। यह प्रावधान न केवल उन्हें पूर्व में किए गए अपराधों के लिए दंड,उन पर होने वाले दोबारा मुकदमो में फंसने से तथा आत्मदोष के विरुद्ध सुरक्षा प्रदान करता है। इसी के साथ-साथ यह न्याय और निष्पक्षता के सिद्धांतों की अच्छे से व्याख्या करता है। ऐसे प्रावधान न केवल व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा तक सीमित होते हैं बल्कि विधि के शासन और समाज में न्याय पूर्णता के निर्माण की नींव भी रखते हैं।

इस प्रकार अनुच्छेद 20 का महत्व उसके हर खंड में सुरक्षा उपयो को स्पष्ट करता है। जिससे यह साबित होता है कि कानूनी प्रक्रिया केवल दंडात्मक ही नहीं साथ ही साथ न्याय संगत और मानवीय भी हो सकती है। भारत की न्यायपालिका द्वारा इस अनुच्छेद की व्याख्या करते हुए यह बताया गया है कि यह न केवल एक कानूनी प्रावधान बना रहे बल्कि आम नागरिकों की स्वतंत्रता और गरिमा के रक्षा कवच के रूप में कार्य करें।

प्रश्न:- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 20 क्या है?

Article 20 भारतीय संविधान में निहित एक ऐसा अधिकार है जो अपराधों के आरोपी व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करता है।

अनुच्छेद 20 के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?

20 में तीन मुख्य प्रावधान हैं:-
1. कार्योत्त कानूनों के विरुद्ध संरक्षण।
2. दोहरे दंड से सुरक्षा।
3. आत्म-दोषारोपण से सुरक्षा।

अनुच्छेद 20 में “पूर्वव्यापी कानून” का क्या अर्थ है?

“पूर्वव्यापी कानून” का अर्थ होता है कोई ऐसा कार्य या गतिविधि जो पहले दंडनीय नही थी। जिसे आरोपी के पहले ही कर दिया था, लेकिन उसके कुछ समय बाद वो कार्य दण्ड़नीय कानून बना दिया गया।

क्या किसी व्यक्ति पर ऐसे कार्य के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है जो किए जाने के समय अपराध नहीं था?

नहीं, किसी व्यक्ति को ऐसे कार्य के लिए दंडित नहीं किया जा सकता जो उसके किए जाने के समय कानून के तहत अपराध नहीं था।

अनुच्छेद 20 के तहत “दोहरे दंड” का क्या मतलब है?

दोहरे दंड का अर्थ है एक ही अपराध के लिए दो बार मुकदमा चलाया जाना और दंडित किया जाना। अनुच्छेद 20(2) किसी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार मुकदमा चलाने और दंडित करने पर रोक लगाता है।

क्या कोई व्यक्ति स्वेच्छा से आत्म-दोषी साक्ष्य प्रदान करना चुन सकता है?

हां, कोई व्यक्ति स्वेच्छा से आत्म-दोषी साक्ष्य प्रदान करना चुन सकता है। अनुच्छेद 20(3) केवल जबरन आत्म-दोषारोपण से बचाता है।

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