Revision In CPC

प्रिय पाठकों, आप सभी का स्वागत है। इस लेख के माध्यम से Revision In CPC के बारे में विस्तार से अध्ययन करेंगे। यह उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पारित आदेशों की जाँच करने और उनमें सुधार करने की अनुमति देती है। इस ब्लॉग में पुनरीक्षण (Revision) का परिचय, इसके आवश्यक तत्व, अपील का अभाव, क्षेत्राधिकार संबंधी दोष, क्षेत्राधिकार त्रुटियों के उदाहरण, पुनरीक्षण की सीमाएँ, मध्यवर्ती आदेश का पुनरीक्षण, परिसीमा अवधि, पुनरीक्षण एवं पुनर्विलोकन में अंतर से संबंधित उपबंधो के बारे में step by step सविस्तार से चर्चा करेंगे।

Revision In CPC

what is revision in CPC

संहिता की धारा-115 उच्च न्यायाल को पुनरीक्षण का अनन्य क्षेत्राधिकार प्रदान करती है।

धारा-115 का उद्देश्य: अधीनस्थ न्यायालयों को अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग में मनमाने या अनुचित रूप से कार्य करने से रोकना है।

उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार: उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा क्षेत्राधिकार संबंधी त्रुटीयों को संशोधित कर सकता है।

पुनरीक्षण, क्षेत्राधिकार पीड़ित पक्ष को ऐसे आदेशों के प्रति उपचार उपलब्ध कराता है, जो अपील योग्य नहीं हैं।

पुनरीक्षण के आवश्यक तत्व

इसके आवश्यक तत्व धारा-115 के विश्लेषण से स्पष्ट है कि

  1. कोई प्रकरण विनिश्चित किया गया हो।
  2. प्रकरण विनिश्चित करने वाला न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीतस्थ हो।
  3. चुनौतीधीन आदेश अपील योग्य न हो। एवं
  4. अधीनस्थ न्यायालय ने क्षेत्राधिकार संबंधी निम्नलिखित में से कोई भूल की हो

(क) उस क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया है जो उसमें निहित ही नहीं है; या

(ख) विधि द्वारा प्रदत्त क्षेत्राधिकार का अतिलंघन किया गया हो; या

(ग) उसने अपने क्षेत्राधिकार का प्रयोग विधि-विरुद्ध या सारवान अनियमितता के अधीन किया हो।

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निर्णीत मामला

‘निर्णीत मामला’ की व्याख्या:

‘निर्णीत मामला पदावली मूल संहिता में परिभाषित नहीं की गई है। फलतः विधि में अनिश्चितता उत्पन्न हुई है। इस प्रश्न पर मतान्तर हो गया कि क्या ‘मध्यवर्ती आदेश’ भी इस पदावली की परिधि में है। मेजर खन्ना बनाम ब्रिगेडियर ढिल्लों, 1964, सु. को. के वाद में यह धारित किया गया कि धारा-115 मध्यवर्तीआदेशों के प्रति भी लागू है।

पुनरीक्षण : मुख्य न्यायिक दृष्टांत

  • बालदेवदास बनाम फिल्मीस्तान डिस्ट्रीब्यूटर्स 1970, सु. को. के वाद में यह धारित किया गया कि किसी मामलें में पारित प्रत्येक आदेश ‘निर्णीत मामले की परिधि में नही आता। केवल वे आदेश इसकी परिधि में आते हैं, जो पक्षकारों के मध्य विवादग्रस्त किसी अधिकार या आभार का विनिश्चित करते हैं।
  • संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा धारा-115 में एक स्पष्टीकरण जोड़ा गया है, जिसके अनुसार प्रकरण विनिश्चित में वाद या दूसरी कार्यवाहियों में पारित कोई आदेश या विवाद्यक विनिश्चित करने वाला कोई आदेश शामिल है। अतः अब ‘प्रकरण विनिश्चय’ से तात्पर्य ऐसे विनिश्चित से है जो क्षेत्राधिकार-विषयक किसी विवाद का कोई अंश अवधारित करता है।

अधीनस्थ न्यायालय की परिभाषा

न्यायालय का अर्थ और न्यायिक कर्तव्य

अधीनस्थ न्यायालय धारा-115 वहीं दर्शित होगी जहाँ प्रकरण उच्च न्यायालय के अधीनस्थ सिविल न्यायालय द्वारा विनिश्चित कि या गया हो। प्रशासनिक हैसियत से कार्य करने वाला व्यक्ति न्यायालय नहीं है। न्यायालय के लिए न्यायिक कर्तव्य आवश्यक है। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि कोई व्यक्ति न्यायिक कतव्यों के निष्पादन करने मात्र से न्यायालय नहीं हो जाता।

विशेष न्यायालय और अधिकरण

जहाँ यह प्रावधानित हो कि मामला एक विशेष न्यायालय द्वारा विनिश्चित किया जाए. वहाँ ऐसा विशेष न्यायालय विधिक न्यायालय होगा।

उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय न होने के उदाहरण

भारत संघ ब० मैसूर पेपर मिल्स, 2004 के बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक पूर्णपीठ के निर्णय के अनुसार मोटर वेहीकिल्स एक्ट-1998 के अन्तर्गत गठित मोटर एक्सीडेन्ट कलेम्स ट्रिब्यूनल, कर्नाटक, प्राइवेट येजूकेशन्स इन्स्टीट्यूसन्स एण्ड कण्ट्रोल एक्ट, 1975 और कर्नाटक एजूकेशन एक्ट, 1995 के अन्तर्गत गठित एजूकेशनल अप्पीलेट ट्रिब्यूनल, रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल एक्ट, 1989 के अन्तर्गत गठित रेलवे क्लेम्स ट्रिब्यूनल धारा 115 के अर्थों में “उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय” नहीं हैं। अतः इन ट्रिब्यूनल्स या अधिकरणों द्वारा पारित आदेशों का Revision उच्च न्यायालय द्वारा नहीं हो सकता। यद्यपि सभी न्यायालय अधिकरण हैं, परन्तु सभी अधिकरण न्यायालय नहीं हैं।

अपील का अभाव

  • अपील का अभाव ‘अपील’ शब्द में प्रथम एवं द्वितीय दोनों ही अपीलें शामिल हैं। अतः पुनरीक्षण वहीं प्रस्तुत किया जा सकेगा जहाँ एक भी अपील उपलब्ध न हो। जहाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपील उपलब्ध हों वहाँ पुनरीक्षण पोषणीय नहीं होगा।

क्षेत्राधिकार संबंधी दोष

अधीनस्थ न्यायालय की त्रुटियाँ

पुनरीक्षण का उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालय को क्षेत्राधिकार के प्रयोग में मनमाने तथा विधि-विरुद्ध ढंग से कार्य करने से रोकना है।

उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के आधार

क्षेत्राधिकार सम्बन्धी निम्नलिखित चूक या भूल के निवारणार्थ उच्च न्यायालय निम्न आधारों पर हस्तक्षेप कर सकता है-

  1. अधीनस्थ न्यायालय द्वारा ऐसे क्षेत्राधिकार का प्रयोग किया गया हो, जो उसमें विधितः निहित न हो; या
  2. विधि द्वारा निहित क्षेत्राधिकार के प्रयोग में अधीनस्थ न्यायालय विफल हो गया हो; या
  3. अधीनस्थ न्यायालय ने अपने क्षेत्राधिकार के प्रयोग में विधि-विरुद्ध ढंग से या सारवान अनियमितता से कार्य किया हो।
  • जहाँ अधीनस्थ न्यायालय द्वारा क्षेत्राधिकारिता के प्रयोग में उपरोक्त प्रकार की भूल न की गई हो, वहाँ उच्च न्यायालय पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। धारा-115 CPC की सभी अपेक्षाओं के संतुष्ट होने पर भी उच्च न्यायालय पुनरीक्षण से इंकार कर सकता है। कारण कि पुनरीक्षण वैवेकीय उपचार है। जहाँ अधीनस्थ न्यायालय क्षेत्राधिकार संबन्धी भूल करते हुए कोई अपीलीय आदेश पारित करता है, वहाँ यदि उच्च न्यायालय की राय में ऐसे आदेश से न्याय की विफलता हुई है तो उच्च न्यायालय न्यायहित में Revision में हस्तक्षेप कर सकेगा। क्षेत्राधि कार के प्रयोग में विफलता के कुछ दृष्टान्त निम्नलिखित है :
  1. निष्पादन न्यायालय द्वारा आज्ञप्ति पर विचार करने में विफल रहना।
  2. आदेश अनुदत्त किये जाने या इंकार किये जाने से संबन्धित सिद्धान्तों पर विचार करने में विफलता।
  3. आदेश 46 के अन्तर्गत संदर्भ करने में विफलता।

क्षेत्राधिकार त्रुटियों के उदाहरण

क्षेत्राधिकार के विधि-विरुद्ध प्रयोग या सारवान अनियमितता के प्रयोग के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं-

  1. अभिलेख पर उपलब्ध साक्ष्य के बिना ही प्रकरण को विनिश्चित करना;
  2. विधि-विरुद्ध ढंग से लिये गये साक्ष्य या अग्राह्य साक्ष्य के आधार पर प्रकरण को विनिश्चित करना;
  3. प्रकरण के प्रति का प्रयोग न करना;
  4. अनिष्पादनीय आज्ञप्ति का निष्पादन करना;
  5. पर्दानशीन महिला को सार्वजनिक रूप से उपस्थित होने के लिए आदेशित करना; या
  6. न्यायालय शुल्क के भुगतान के बिना प्रस्तुत किये गये वाद-पत्र को स्वीकार करना;

ऐसे क्षेत्राधिकार के प्रयोग जो अधीनस्थ न्यायालय में निहित ही न हो, के कुछ उदाहरण निम्नलिखित है :

  1. ऐसे आदेश के विरुद्ध अपील पर विचार करना जो अपील योग्य ही न हो; या
  2. प्रथम दृष्टया प्रकरण स्थापित हुए बिना व्यादेश अनुदत्त करना।

पुनरीक्षण की सीमाएँ

पुनरीक्षण की सीमाएँ: पुनरीक्षण क्षेत्राधिकार वैवेकीय है, अतः धारा-115 (1) (क), (ख) तथा (ग) की अपेक्षाओं के संतुष्ट हो जाने के बावजूद भी उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करने से इंकार कर सकता है। यदि अधीनस्थ न्यायालय के विनिश्चित द्वारा दोनों पक्षों के मध्य सुलहा कर दिया गया हो तो उच्च न्यायालय Revision द्वारा हस्तक्षेप नहीं कर सकता। यदि पीड़ित पक्ष कोई समान प्रभाविकता का वैकल्पिक उपचार रखता है तो उच्च न्यायालय हस्तक्षेप करने से इंकार कर सकता है।

यह एक वैवेकीय उपचार है अतः न्यायालय पुनरीक्षणकर्ता के आचरण तथा व्यवहार के असंतोषजनक या अनुचित पाये जाने पर पुनरीक्षण द्वारा हस्तक्षेप करने से इंकार कर सकता है।

मध्यवर्ती आदेश का पुनरीक्षण

1976 का संशोधन अधिनियम

मध्यवर्ती आदेश के विरुद्ध कोई पुनरीक्षण: धारा-115 का परन्तुक, संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा योजित किया गया है। इसके अनुसार मध्यवर्ती आदेश पुनरीक्षण योग्य नहीं है।

अपवाद स्वरूप स्थितियाँ

अपवाद स्वरूप निम्नलिखित में से किसी परिस्थिति के संतुष्ट होने पर मध्यवर्ती आदेश पुनरीक्षण योग्य होगा-

  1. न्याय का विफल होना: यदि आवेदक के पक्ष में आदेश किया गया होता तो उसके द्वारा वाद या कार्यवाही अन्तिमतः निस्तारित हो गई होती। या
  2. अपूरणीय क्षति का खतरा: यदि आदेश को बना रहने दिया गया तो वह न्याय विफल करेगा या अपूरणीय क्षेति कारित करेगा।

ऐसा आदेश या आज्ञप्ति जिसके विरुद्ध अपील उपलब्ध हो (उच्च न्यायालय या अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष) तो उच्च न्यायालय पुनरीक्षण में हस्तक्षेप नहीं कर सकता।

परिसीमा अवधि

परिसीमा अवधि (अनु.-131, भारतीय परिसीमा अवधि अधि.-1963): पुनरीक्षण की अवधि सीमा भारतीय परिसीमा अधिनियम-1963 के अनुच्छेद-131 के अनुसार 90 दिन है। यह उस तिथि से, जिस तिथि को पुनरीक्षण योग्य आदेश या आज्ञप्ति पारित की गई हो, गिना जायेगा।

पुनरीक्षण एवं पुनर्विलोकन में अंतर

पुनरीक्षण एवं पुनर्विलोकन में अन्तर निम्नलिखित हैं-

  1. पुनरीक्षण (DHARA-115. C.P.C.) का अधिकार, एक अधीनस्थ न्यायालय द्वारा विनिश्चित मामले में उच्चस्थ न्यायालय का अधिकार है, जबकि पुनर्विलोकन (धारा-114, आदेश-47) उसी न्यायालय द्वारा किया जाता है, जिसने किसी मामले को विनिश्चित किया हो।
  1. पुनरीक्षण का अधिकार केवल उच्च न्यायालय को प्राप्त है, जबकि पुनर्विलोकन सभी सिविल न्यायालयों को को प्राप्त अधिकार है।
  2. पुनरीक्षण के अधिकार का प्रयोग केवल उसी दशा में किया जा सकता है, जहाँ कि उच्च न्यायालय में अपील न की जा सकती हो, लेकिन ऐसी परिस्थिति में भी पुनर्विलोकन का अधिकार न्यायालयों को होगा।
  3. जहाँ पुनरीक्षण केवल क्षेत्राधिकार सम्बन्धी त्रुटीयों के आधार पर ही हो सकता है, वहीं पुनर्विलोकन

(i) किसी नये और महत्वपूर्ण विषय या साक्ष्य का पता चलने पर, या

(ii) अभिलेख पर स्पष्टतः प्रकट किसी त्रुटी होने पर, अथवा

(ii) किसी अन्य पर्याप्त कारण होने के आधार पर किया जा सकता है।

  1. पुनर्विलोकन के मामले में क्षुब्ध पक्षकार को आवेदन करना अनिवार्य होता है, जबकि पुनरीक्षण के मामलों में उच्च न्यायालय स्वयं अधीनस्थ न्यायालय को आदेशित करके मामले को अपने पास मंगवा सकता है।
  2. पुनर्विलोकन के आदेश के खिलाफ अपील की जा सकती है, जबकि पुनरीक्षण के खिलाफ ऐसा कभी नहीं किया जा सकता।

पुनरीक्षण क्या है CPC?

CPC की धारा 115 उच्च न्यायालय को Revision क्षेत्राधिकार प्रदान करती है। यह उच्च न्यायालय को अधीनस्थ न्यायालयों द्वारा पारित आदेशों की जाँच करने और उनमें सुधार करने की अनुमति देती है।

पुनरीक्षण की समय सीमा क्या है?

राजस्व अधिनियम की धारा 15 के तहत Revision याचिका दायर करने की अवधि भी 90 दिन है और यदि पुनरीक्षण याचिका इस अवधि के बाद दायर की जाती है . पुनरीक्षण याचिका दायर करने के लिए सीमा अवधि का प्रावधान है और यह न्यायाधीश द्वारा बनाया गया कानून था कि सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत पुनरीक्षण याचिका दायर की जा सकती है।

Revision कौन दायर कर सकता है?

Revision की शक्ति हाईकोर्ट तथा सेशन न्यायालय दोनों को प्राप्त है, परंतु दोनों में से किसी एक कोज Revision के लिए याचिका की जा सकती है। पुनरीक्षण में किसी निर्णय या दंडादेश की वैधता या औचित्य का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त होता है। पुनरीक्षण लंबित और निर्णित दोनों ही मामलों में किया जा सकता है

Revision की आवश्यकता क्यों पड़ती है?

Revision वह प्रक्रिया है जिसमें आप अपने काम को दोहराते हैं ताकि आप उस विषय-वस्तु को याद कर सकें जिसे आप भूल गए हों, अपने ज्ञान में किसी कमी को पहचान सकें, अपनी समझ की जांच कर सकें और जो सीखा है उसे सुदृढ़ कर सकें।

धारा 115 सीपीसी क्या है?

इस धारा 115 में किसी मामले का, जिसका निर्णय हो चुका है” पद के अंतर्गत कोई आदेश, या किसी वाद या अन्य कार्यवाही के दौरान किसी विवाद्यक का निर्णय करने वाला कोई आदेश सम्मिलित है। मूल अधिनियम की धारा ११५ के स्थान पर निम्नलिखित धारा प्रतिस्थापित की गई।

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